जलते बुझते ख़्वाबों का इक क़स्बा लेकर (ग़ज़ल)

जलते बुझते ख़्वाबों का इक क़स्बा लेकर
शहर-ए-ख़्वाहिश निकले थे हम क्या क्या लेकर
हर बार उसे "आज नहीं कल" कह जाते हो
पछताओगे दिल को इतना हल्का लेकर
झगड़े का तो कुछ भी हल हम ढूंढ न पाए
सो बैठे है बेमतलब का झगड़ा लेकर
रब जाने क्यूँ तुम तक ही मैं आ जाता हूँ
अपनी सारी फ़रियादों का दरिया लेकर
क़दमों ने जो दो साँसे लीं तो लगता है
भाग न जाए कोई मेरा रस्ता लेकर
अब तो सारे करते होंगे सज्दा उसका
आया था वो अच्छा ख़ासा 'जुमला' लेकर
- विश्वजीत गुडधे

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